कितने नीरस दिन है,
कैसी है महामारी है,
खौफनाक आभा पृकृति की,
जीवन से जंग जारी है,
दौड़ रहे चिकित्सा वाहन,
कम पड़ रहे शव वाहन,
दिन में भी हो रहे अंधकार,
वेटिंग में हो रहे दाह संस्कार,
सूना सूना है हर एक मंजर,
गंगा तैरे राख अस्थि पंजर,
आग उगल रहे वृक्ष लगाएं,
जो कभी सुंदर सजती थी,
कांटे तो खुश हो जैसे,
फूल तो जैसे रो रहे हैं,
कितना दर्द हवाओं में है,
हवाएं जैसे सुर् खो रहे हैं,
जो सदा गुनगुनाती थी ,
जो सदा सुखद होती थी,
जगह नहीं अस्पतालों में,
सड़कों पर दम तोड़ रहे हैं,
जनहित कहता था चलो अस्पताल,
आज कह रहा स्टे होम,
कभी खिल के हंसते थे यहां,
आज रो रहा मेंरा रोम रोम,
सीख रही है धरती पल पल,
रो रहा है गगन भी हर पल,
हर घर में बीमारी पसरी,
दुखों ने घर को घेरा है,
भटक रहे हैं वाहन लेकर,
चौराहे बैठा खुलेआम लुटेरा है,
परेशानियों से घिरकर,
हो गई सबकी बुद्धि आधी,
अगर टूटा कोई नियम धोखे से,
पुलिस की तो भैया हो गई चांदी,
कमाया नहीं साल से कुछ भी,
टैक्स सरकारी चुकाना जारी,
कहते हैं आज आजाद देश है ,
नजर नहीं आती आजादी,
टेंशन से घिर रहा मनुष्य है,
कोरोना नहीं हार्ट अटैक से मर रहा मनुष्य है,
नेताओं की लाचारी देखो,
चुनाव कराना जारी है,
क्या करोगे इतना धन,
हो जाएगा एक दिन समाप्त जीवन,
वक्त है अभी संभल जाओ,
जागो ,उठो, दौड़ो ,भागो देश को बचा लो।।
विश्व साहित्य सेवा संस्थान अंतर्राष्ट्रीय सचिव___
निशी पिंकी त्रिवेदी
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