Monday, 27 September 2021

चाहा कुछ भी नहीं तुम्हें खो के

भूल गई थी सब तेरी हो के,
पाया सब कुछ तुम्हें खो के,
मुस्कुरा रही हूं अंदर से रो के,
जागी अब तक नहीं मैं सो के,
छुपती नहीं आंखें मुंह धो के,
बंधन में बंधी तुम से मोह के,
दूर हो न सकी मैं तेरी हो के,
बरसों बीते हैं तुम बिन रो के,
गुजरते हो रोज आंखों से हो के,

    विश्व साहित्य सेवा संस्थान,
     अंतर्राष्ट्रीय सचिव,
      साहित्यकार ---निशी द्विवेदी

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