रचनाकार का नाम ____निशि द्विवेदी
वक्त का दरिया ठहर सा गया है ।
कोरोना का कहर फैल गया है।
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वक्त का दरिया ठहर सा गया है
सोचा ना था जैसा वैसा हो गया है
जीवन अचानक बदल सा गया है
सभी का ढंग बदल सा गया है।
तरक्की ने साथ छोड़ दिया है
डर ने जैसे घर कर लिया है
मन अचानक बदल सा गया है
रिश्तो ने मन बदल सा लिया है।
महामारी ने अंधेरा किया है।
आशा नहीं दिखती कहीं है।
शाम से सीधा सुबह होती थी।
रात अंधेरा ठहर सा गया है ।
सवेरा कहीं खो सा गया है
अंधेरा बिलख के रो गया है।
चकाचौंध कहीं दिखती नहीं है।
अंधेरों ने जिगर में घर कर लिया है।
मातम धरती पर छा गया है।
पैसो के पीछे दौड़ते थे जो रोज,
परिवार पकड़कर घर में छुपे हैं लोग।
वही पैसा सड़कों पर बिखरा पड़ा है,
दफनाने को लाशें जमी नहीं है।
घाटों पर लकड़ी की कमी है।
रिश्ते निभाने में डरते हैं लोग।
अंतिम यात्रा मैं साथ जाता नहीं है।
आज किसी को गले लगाता नहीं है।
कोई किसी से हाथ मिलाता नहीं है।
कोई किसी के घर जाता नहीं है ।
कोई किसी को घर बुलाता नहीं है।
करोना ने इस कदर है डराया।
पैसा किसी को कमाना नहीं है।
बच्चों को स्कूल में पढ़ाना नहीं है।
पार्टी में किसी को जाना नहीं है।
प्रतिस्पर्धा का रहा जमाना नहीं है।
होटल में जाकर खाना खाते थे जो।
घरों में बैठकर रोटी पका रहे हैं।
पुराने कपड़ों में काम चला रहे हैं ।
लाखों की जो बातें करते थे फोन पर।
फोन से दाल चावल आटा मंगा रहे हैैं।
पैसा बचाने के नाम पर रोते थे जो लोग।
आज बैंक से निकाल कर खा रहे हैं ।
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